Thursday, August 19, 2010

उतनी दूर मत ब्याहना ...बाबा |

खरंतर हा find आईचा. तिला आणि मला खूप आवडलेली ही कविता.'निर्मला पुतुल' नावाच्या हिंदी कवियित्रीची. संथाळी आदिवासी जमातीत जन्मलेल्या त्या! 'नगारे कि तरह बजते हैं शब्द !' हा त्यांचा गाजलेला कवितासंग्रह. त्यांच्या काही कवितांचा अनुवाद सध्या कविता महाजन करत आहेत.
बाबा,
मुझे उतनी दूर मत ब्याहना,
जहाँ मुझे मिल जाने खातिर,
घर की बकरियां बेचनी पड़े तुम्हें
जंगल नहीं,पहाड़ नहीं जहाँ,
वहाँ मत कर जाना मेरा लगन
वहाँ तो कतई नहीं,
जहाँ की सडकोंपर
मन से भी ज्यादा तेज दौडती हो मोटरगाड़ियाँ

उस घर में मत जोड़ना मेरा रिश्ता,
जहाँ बड़ा सा खुला आँगन ना हो,
मुर्गे की बांग पर होती नहीं हो जहाँ सुबह
और शाम पिछवाड़े से जहाँ
पहाडीपर डूबता सूरज ना दिखे
मत चुनना ऐसा वर,
जो पोचई और हड्डियों में डूबा रहता हो अक्सर,
काहिल-निकम्मा हो,
माहिर हो मेले से लड़कियां उड़ा ले जाने में,
ऐसा वर मत चुनना मेरी खातिर
कोई थारी-लोटा तो नहीं
कि बाद में जब चाहे बदल लुंगी
अच्छा -ख़राब होने पर!

जो बैंत बात में बात करे लाठी डंडा की,
निकले तीर-धनुष, कुल्हाड़ी
जब चाहे चला जाए बंगाल,असम या कश्मीर
ऐसा वर नहीं चाहिए हमें
और उसके हाथों में मत देना मेरा हाथ,
जिसके हाथोंने कभी कोई पेड़ नहीं लगाए,
फ़सले नहीं उगाई जिन हाथोंने,
जिन हाथों ने नहीं दिया कभी किसी का साथ
किसी का बोज़ नहीं उठाया

ब्याहना हो तो वहाँ ब्याहना,
जहाँ सुबह जाकर शाम तक लौट सको पैदल ,
मैं जो कभी रोंऊ इस घाट
तो उस घाट नदी में स्नान करते तुम
सुनकर आ सको, मेरा करुण विलाप
चुनना ऐसा वर,
जो बजाता हो बाँसुरी सुरीली
और ढोल-मांदल बजने में हो पारंगत
बसंत के दिनों में ला सके जो रोज
मेरे जुड़े की खातिर पलाश के फूल ,
जिससे खाया न जाए
मेरे भूखे रहनेपर......
उसीसे ब्याहना मुझे !